बहुत समय पहले मधुपुर राज्य में राजा महेंद्र वर्मा राज करते थे . एक बार उसके राज दरबार में विदेशी से एक मेहमान आया और उसने राजा राजा महेंद्र वर्मा को उपहार में अपने देश का एक बहुत बड़े आकर का सुंदर सा पत्थर भेट में ला कर दिया । राजा उस पत्थर के मिलने से बहुत खुश थे । रात को राजा महेंद्र वर्मा ने उस अनमोल पत्थर से भगवान विष्णु की मूर्ति बनवा कर एक भव्य मंदिर में उसे प्रतिस्ठित करने का विचार किया।अगले दिन राजा ने प्रतिमा निर्माण की जिम्मेदारी अपने महामंत्री चतुरसेन को सौंप दी।
चतुरसेन से अपने नाम के अनुसार बड़े चतुर और निपुण थे। उन्होंने अपने राज्य के सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार भुजंग को बुलाया और कहा, यह कीमती पत्थर विदेश से आया है तुम्हे सात दिनों में इस पत्थर से भगवान विष्णु की प्रतिमा बनानी हैं. अगर तुम एक अच्छी मूर्ति का निर्माण सात दिन के भीतर कर दोगे तो तुम्हे इसके इनाम में 20 स्वर्ण मुद्रायें मिलेगी।
भुजंग उस राज्य का श्रेष्ठ मूर्तिकार था। उसने कई मंदिर का निर्माण किया था जिसके कारण उसकी ख्याति चारो तरफ फ़ैल गयी थी। भुजंग को अपने कला पर बड़ा घमंड था।
भुजंग को कार्य के लिए 20 स्वर्ण मुद्रा बड़ी कम लगी, किन्तु राजा का कार्य था इसलिए वोह मंत्री चतुरसेन को मना नहीं कर सका। उसने तुरंत अपने औज़ारों के बक्से से एक हथौड़ा निकला और उस पत्थर को तोड़ने के लिए उसपर हथौड़े से चोट करने लगा। मंत्री चतुरसेन के सामने ही भुजंग ने जल्दी जल्दी में उस विदेशी पत्थर पर बहुत वार किये. लेकिन वोह पत्थर नहीं टूटा। लगभग पचास बार प्रयास करने के भुजंग ने अंतिम बार चोट करने के उद्देश्य से हथौड़ा उठाया, किंतु यह सोचकर हथौड़े पर प्रहार करने के पहले ही अपने हाथ रोक लिए, कि जब पचास बार वार करने यह पत्थर नहीं टूटा, तो अब क्या टूटेगा।
भुजंग महामंत्री चतुर सेन से बोला,मैं अपने तजुर्बे से बोल सकता हु की यह अभेद पत्थर, जिससे कोई मूर्तिकारी नहीं की जा सकती। में दावे से कह सकता हूँ की इस पत्थर से भगवान विष्णु की प्रतिमा नहीं बनायीं जा सकती.
महामंत्री चतुर सेन एक बार बड़े दुखी हुए की वे राजा महेंद्रवर्मा की आज्ञा के अनुसार मूर्ति नहीं बनवा पाएंगे। लेकिन चतुरसेन बड़े अनुभवी थे। महामंत्री के पद पर आने से पहले उन्होंने बहुत छोटे पदों पर काम किया था। इसलिए उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा और इस बार उन्होंने भगवान विष्णु की मूर्ति बनवाने के लिए राज्य के एक गरीब मूर्तिकार भोला को बुलाया। भोला ने उस पत्थर को जांचने के लिया एक छोटा सा हथोड़ी निकली और जैसे ही उसने पत्थर पर चोट किया, कि वह पत्थर एक बार में टूट गया ।
अब भोला उस पत्थर से भगवान् विष्णु की मूर्ति का निर्माण करने में लग गया। जल्दी ही भोला ने भगवान् विष्णु की बहुत सुन्दर मूर्ति बनायीं, इसलिए राजा महेंद्र वर्मा ने खुश हो कर भोला को इनाम स्वरूप 1000 स्वर्ण मुद्राय दी। तब महामंत्री चतुरसेन ने सोचा की अगर भुजंग ने केवल एक अंतिम प्रयास और किया होता,जो वह करते करते रुक गया, तो वह जरूर सफ़ल हो जाता और उसे 1000 स्वर्ण मुद्राओं के साथ साथ राज्य सम्मान की भी प्राप्ति होती।
सीख - हमे किसी भी कार्य को छोटा नहीं समझना चाहिए और उसे पूरा करने के समय आने वाली समस्याओ के सामने आत्मविश्वास नहीं खोना चाहिए। हम थोड़ा सा प्रयास करके ही हार मान लेते हैं, जबकि ऐसा संभव है की यदि हम कुछ प्रयास और चेस्टा करे तो वह समस्या दूर हो सकती है।
0 टिप्पणियाँ