"परशुराम और लक्ष्मण का संवाद: रामचरितमानस की एक अद्वितीय घटना"



रामचरितमानस की एक अनूठी घटना है जब महान योद्धा परशुराम और लक्ष्मण के बीच तीव्र संवाद हुआ। यह कथा धनुष यज्ञ के बाद घटित होती है, जब भगवान राम ने शिव धनुष को न केवल उठाया बल्कि तोड़ भी दिया था। इस घटना की प्रतिध्वनि चारों ओर गूँज रही थी और इसी खबर ने परशुराम को उनके तपस्यालीन विश्राम से उद्धत किया।

परशुराम जिस धनुष को अत्यंत पूजनीय मानते थे, वह अब टूट चुका था। वह धनुष उन्होंने ही राजा जनक को दिया था। उनके हृदय में यह बात सहन नहीं हो रही थी कि कोई उनके धनुष को तोड़ सकता है। उनके मन में उमड़ते क्रोध के साथ वे अयोध्या पहुँचे, जहाँ उनकी मुलाकात लक्ष्मण से हुई।

परशुराम के प्रवेश करते ही उनके तेज और अद्भुत पराक्रम के चर्चे होने लगे। लेकिन लक्ष्मण, जो कि अपने अग्रज राम के प्रति असीम भक्ति रखते थे, उन्हें परशुराम का उत्तेजित आगमन रास नहीं आया।

जब परशुराम ने धनुष तोड़ने वाले की मांग की, तब लक्ष्मण ने तत्काल उनकी गर्वित चुनौतियों का विरोध किया। उन्होंने हंसकर कहा, "हे देव! सभी धनुष हमारे लिए समान हैं। इस पुराने धनुष के टूटने में क्या हानि है? और यदि आप वीर हैं, तो हम भी छुईमुई नहीं हैं। हम आपकी तर्जनी से नहीं डरते।"

लक्ष्मण ने परशुराम की वीरता पर कटाक्ष करते हुए और भी बातें कहीं। "आप अपने को महान योद्धा मानते हैं और बार-बार अपनी कुल्हाड़ी दिखाकर पहाड़ उड़ाने का दम भरते हैं। आपके स्वभाव को कौन नहीं जानता? जिस प्रकार आप माता-पिता की हत्या के लिए प्रेरित हुए और उनके ऋण से मुक्ति पाई, उसी प्रकार आप गुरु के प्रति अपने ऋण पर ब्याज जोड़ते हैं।"

परशुराम, जिनके क्रोध की कोई सीमा नहीं थी, वे लक्ष्मण के इस अप्रत्याशित उपहास से उद्विग्न हो उठे। उनका क्रोध और भी दावानल की भांति भड़क उठा। लेकिन, इसी क्षण में, राम ने हस्तक्षेप किया।

शांत स्वर में राम ने परशुराम से कहा, "यदि आपके धनुष को तोड़ना ही आपको अस्वीकार्य है, तो कृपया मुझे दंड दीजिए। यह मेरा ही कार्य था।" राम के विनम्र और धैर्यपूर्ण शब्दों ने परशुराम के हृदय में एक नई अनुभूति का संचार किया।

उन्होंने राम को देखा और उनकी दिव्यता को पहचाना। अंततः परशुराम ने राम के चरणों में अपना धनुष और परशु अर्पित किए और उन्हें विश्व का सर्वोच्च धनुर्धर माना।

इस प्रकार, लक्ष्मण के व्यंग्य और परशुराम के क्रोध ने एक ऐसे संवाद का निर्माण किया, जिसमें अहंकार और गर्व का परित्याग हुआ ।

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