छठ पूजा का इतिहास - क्यों मनाया जाता है छठ पर्व

क्यों मनाया जाता है छठ पर्व


सूर्योपासना का पर्व छठ हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। लिहाजा इसे छठ पर्व के नाम से जाना जाता है। इस पर्व को सुख, समृद्धि और मनोवांछित फल प्रदान करने वाला माना जाता है। मान्यता है कि देवी छठ सूर्य देवता की बहन हैं, इसलिए लोग सूर्य की तरफ अर्घ्य दिखाते हैं और छठी मैया को प्रसन्न करने के लिए सूर्यदेव की आराधना करते हैं। चार दिनों तक चलने वाले इस महान पर्व में सूर्य देव की दोनों शक्तियों उषा तथा प्रत्युषा की भी आराधना की जाती है, जिसमें प्रात: काल ऊषा देवी की और संध्या काल में प्रत्युषा देवी की पूजा होती है। छठ पूजा का ये महान पर्व बिहार और उत्तर प्रदेश में काफी धूम-धूम से मनाया जाता है।

चलिये अब जानते हैं कि आखिर छठ पूजा के महान पर्व की शुरुआत कब और कैसे हुई।

छठ पूजा के प्रारंभ को लेकर पौराणिक कथाओं में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक है महाभारत काल में दानवीर कर्ण की कथा। कहा जाता है कि दानवीर कर्ण सूर्यदेव के पुत्र थे और वो प्रतिदिन सूर्य की उपासना करते थे। कथा के अनुसार सबसे पहले कर्ण ने ही सूर्य की उपासना शुरु की थी। प्रतिदिन वो स्नान करने के बाद नदी में जाकर कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे।

क्यों मनाया जाता है छठ पर्व


कहा जाता है कि सूर्य देव के आशीर्वाद से ही वो महान योद्धा बने थे। मान्यता है कि दानवीर कर्ण ने ही सूर्य देव को अर्घ्य देने की शुरुआत की थी। किवदंती है कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को कर्ण सूर्य देव की विशेष पूजा किया करते थे। तभी से भारत वर्ष में प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को छठ पूजा मनाने की परंपरा चली आ रही है।

इसके अलावा एक दूसरी कथा के अनुसार प्राचीन समय में प्रियवद नाम के एक राजा थे। वो नि:संतान थे, जिसकी वजह से वो काफी दुखी रहते थे। ऐसे में एक बार उन्होंने इस बारे में महर्षि कश्यप से बात की तो महर्षि कश्यप ने उनसे कहा हे राजन, मेरे ख्याल से पुत्र प्राप्ति के लिए अगर पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया जाए तो ये संभव हो सकता है कि आपको उस यज्ञ के परिणामस्वरुप पुत्र की प्राप्ति हो।

 इसके बाद राजा प्रियवंद ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया और यज्ञ में आहुती के लिए बनाई गई खीर राजा की पत्नी मालिनी को खाने के लिए दी गई, जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। लेकिन जब पुत्र का जन्म हुआ तो वो मृत पैदा हुआ। इसके बाद राजा प्रियवद अपने मृत पुत्र के शव को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में अपने प्राण भी त्यागने लगे। तब उसी वक्त ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा -हे राजन, मैं सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हूं, इसलिए मेरा नाम षष्ठी भी है। तुम मेरी पूजा करो और लोगों में इसका प्रचार-प्रसार करो। तुम्हें फिर से पुत्र की प्राप्ति होगी।

इसके बाद राजा ने पुत्र की कामना से माता का व्रत पूरे विधि-विधान से किया, उस दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी थी। इस पूजा के परिणामस्वरूप राजा प्रियवंद को पुत्र की प्राप्ति हुई और तब से ही पुत्र प्राप्ति की कामना करके लोग छठी मैया की पूजा करने लगे। 

तीसरी कथा रामायण काल से जुड़ी है।

मान्यता है कि मुंगेर के सीता चरण में कभी माता सीता ने छह दिनों तक रहकर छठ पूजा का थी। कहते हैं कि जब 14 वर्षों का वनवास काटने के बाद भगवान श्री राम माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे तो रावण वध के पाप से मुक्ति पाने के लिए रिषि-मुनियों ने उन्हें राजसूय यज्ञ करने का सुझाव दिया। इसके लिए जब ऋषि मुग्दल को आमंत्रित किया गया तो उन्होंने कहा कि  आप दशरथ पुत्र श्री राम और उनकी अर्धांगनी सीता से कहें कि वो हमारे आश्रम में पधारें। क्योंकि हम चाहते हैं कि वो यहां आकर एक विशेष पूजा करे।   ऋषि मुग्दल की आज्ञा का पालन करते हुए भगवान श्री राम और माता सीता उनके आश्रम में गईं। 

तब ऋषि ने उन्हें छठ पूजा के बारे में बताया। इसके बाद ऋषि रिषि ने माता सीता को गंगा जल छिड़क कर पवित्र किया और फिर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने को कहा। तब वहीं रहकर माता सीता ने छह दिनों तक भगवान सूर्यदेव की उपासना की थी। इस कथा के अनुसार तब से ही सूर्यउपासना के इस महापर्व छठ का आयोजन होने लगा।




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